कल रात मैंने नींद से दो सपने चुराये l
कहा चलो आओ तुम्हे हम शेर कराये ll
पहले ना कहा सपनो ने, सोचा और आखिर,
दोनों ने मिलकर हां हां के गीत गुनगुनाये ll
जाना था दूर, क्षितिज के उस पार,
ढूंढना था आकाश गंगा का किनार,
कहा है उसकी शुरआत? कहा है अंत?
आकाश गंगा की गंगोत्री सूरज था यार,
बनाके सेफ्टी बेल्ट आकाशगंगा को, निकलता हे सूरज निराला l
जब बारिश में ऱास्ते बिगड़े, तो इंद्रधनुष का मिलता सहारा ll
कुदरत भी जब संभल कर चले हर डगर, हर नगर, हर शहर l
तो तू क्यों उड़ता बिना पंख के, क्यों करता सलामती से किनारा ll
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